Thursday, March 31, 2011

For Cricket Fans

मोहाली में मैच भया तो भारत क्यों है बंद
छोड के काम काज सारे परचम करे बुलंद
परचम करे बुलंद, दो-दो पी॰ एम॰ हैं आए
मुंबई के अभिनेता, नेता का साथ निभाए
अंत समय है आ गया, गर ना जीते आज
भारत माता के सिर पर नहीं बचेगा ताज

हवन हो रहे देश में आरती और अज़ान
ताकि मैच के बाद हम निकले सीना तान
निकले सीना तान धोनी-अफरीदी खेलते
टी॰वी॰ पर सब लुक्खे तर्कों के दंड पेलते
कह सप्रे कविराय हर कोई मैच में जुट गया
देशप्रेमी बन, नहीं तो आज तू लुट गया

Friday, March 26, 2010

किसी अन्जान शायर का शेर

खुदा या नाखुदा, अब जिसको चाहो बक्श दो इज्जत
हकीकत में तो कश्ती इत्तफाकन बच गयी अपनी ||

Wednesday, March 10, 2010

दायरा

एक अज्ञात कवि की यह रचना बहुत अच्छी लगी. इसलिए यहाँ आपके लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ.

तैरते तिनके झुलाती धार है
डूबता कंकड़ बहुत लाचार है
कौन भारी और हल्का कौन है
तौलना ही लहर का व्यापार है

एक काली डोर मैं अम्बर घिरा
बन्धनों में जीर्ण है सारी धरा
पांखुरी ने तो बहुत बाँधा मगर
गंध ने माना नहीं यह दायरा

Tuesday, September 01, 2009

शिकारी आएगा, जाल बिछाएगा, हमें जाल में फंसना नहीं

आज एक ई-मेल पढते हुए बचपन में सुनी हुई कहानी याद आ गई। मेल में क्या था और कहानी क्यूँ याद आई यह तो बाद में बताता हूँ, पहले कहानी सुन लीजिए।

बात काफी पुरानी है। एक बार एक महात्मा जंगल से गुजर रहे थे कि उन्हें किसी तोते की आवाज़ सुनाई दी। उन्हे लगा जैसे तोता किसी मुसीबत में फंसा है और मदद के लिए पुकार रहा है। अब वो पुकार सुन के भी सहायता के लिए ना जाएँ तो महात्मा किस बात के? आवाज़ का पीछा करते करते वो तोते तक पहुंच गए।

तोता किसी बहेलिए के बिछाए जाल में फंसा हुआ छटपटा रहा था। महात्मा जी ने उसे जाल से छुडा तो दिया लेकिन उन्हें लगा कि ये तोता फिर से जाल में फंस सकता है, इसलिए कुछ दिनों के लिए उसे अपने पास रख लिया और उसे सिखाते रहे "शिकारी आएगा, जाल बिछाएगा, हमें जाल में फंसना नहीं"। कुछ ही दिनों में तोते ने अच्छे से सीख लिया। तब महात्मा ने उसे छोड दिया।

कुछ महीनों बाद महात्मा उसी जंगल से गुजर रहे थे तो उन्हे बहुत सारे तोतों की आवाज़ सुनाई दी "शिकारी आएगा, जाल बिछाएगा, हमें जाल में फंसना नहीं"। महात्मा जी बडे खुश हुए। उन्हें इस बात से बहुत संतुष्टि हुई कि उनके छोटे से प्रयत्न से सारा का सारा झुंड अब शिकारियों से बचा रहेगा। यही सोचकर वो आवाजों की दिशा में बढे। लेकिन जल्द ही उनकी संतुष्टि दुःख में बदल गई जब उन्होंने देखा कि सारे के सारे तोते जाल में फंसे हुए हैं और बोल रहे हैं "शिकारी आएगा, जाल बिछाएगा, हमें जाल में फंसना नहीं"।

तो अब सवाल ये उठता है कि वो कौनसी ई-मेल थी जिसने ये बरसों पुरानी कहानी याद दिला दी?

ई-मेल में बडे ही विस्तार से बताया था कि जिंदगी में खुश कैसे रहा जाए। इतने सारे काम के बोझ और तनावों के बीच में आराम कैसे ढूंढा जाए। कुछ सटीक टिप्पणियाँ (आप चाहें तो इन्हें Punch Lines कह सकते हैं) भी की गईं थीं जैसेः

Worrying has become our habit. That's why we are not happy.

Pain is inevitable, but suffering is optional.

Problems are Purposeful Roadblocks Offering Beneficial Lessons (to) Enhance Mental Strength.

Eyes provide sight. Heart provides insight.

Success is a measure as decided by others. Satisfaction is a measure as decided by you.

ऐसी कई ई-मेल हर रोज हमें आती हैं और हर रोज कुछ देर के लिए (शायद?) हम बदल जाते हैं । लेकिन फिर इसे किसी दोस्त को forward करके अपने पुराने ढर्रे पर लौट आते हैं। उसके बाद फिर वही काम का बोझ, वही तनाव, वही खीझ।

अब आप ही बताइए कि हममें और उन तोतों में क्या अंतर हैं?

Sunday, January 06, 2008

ये ज़रुरी तो नहीं

आज musicindiaonline पर जगजीत सिंह की ग़जलें सुनते हुए एक ग़जल इतनी पसंद आयी कि उसे यहां आपके लिए post कर रहा हूँ। आपको ग़जल के शायर पता हों तो बताइये और ना सुनी हो तो इस website पर जाकर जरूर सुनिए।

उम्र जल्वों में बसर हो ये जरूरी तो नहीं
हर शब-ए-ग़म की सहर हो ये जरूरी तो नहीं

चश्मे स़ाकी से पियो या लब-ए-सागर से पियो
बेख़ुदी आठों पहर हो ये जरूरी तो नहीं

नींद तो दर्द के बिस्तर पे भी आ सकती है
उनके आगोश़ में सर हो ये जरूरी तो नहीं

शेख़ करता तो है मस्जिद में ख़ुदा को सजदे
उसके सजदों में असर हो ये जरूरी तो नहीं

सबकी नज़रों में हो सा़की ये ज़रूरी है मगर
सब पे सा़की की नज़र हो ये ज़रुरी तो नहीं

Saturday, September 22, 2007

आत्म अवलोकन

सपने टूटने के एहसास से जो रुदन होता है
उसी दुख नए स्वप्न का सृजन होता है

यह न सोच कभी कि ईश्वर विरुद्ध है तेरे
इसी पल तो वो सबसे अंतरंग होता है

ना मिले मंजिल जो बरसों चलने के बाद भी
रख भरोसा देरी का कुछ तो कारण होता है

कभी आँखों में चमक कभी उदासी की नमी
है जरुरी तभी तो ये परिवर्तन होता है

ढूँढ अपने अंदर ही इस दर्द की वजह
बाहर तो सिर्फ अंदर का प्रतिबिम्ब होता है

Sunday, August 12, 2007

कुँवर बेचैन की दो कविताएँ

जिंदगी की राहों में खुशबुऒं के घर रखना
आँख में नई मंजिल पांव में सफर रखना
सिर्फ छाँव में रहकर फूल भी नहीं खिलते
चांदनी से मिलकर भी धूप की खबर रखना
लोग जन्म लेते ही पंख काट देते हैं
है बहुत बहुत मुश्किल बाजु़ऒं में पर रखना

हमने लोहे को गलाकर जो खिलौने ढाले
उनको हथियार बनाने पर तुली है दुनिया
नन्हे बच्चों से कुँवर छीन के भोला बचपन
उनको होशियार बनाने पर तुली है दुनिया

Thursday, June 28, 2007

एक होने की पहली शर्त

कभी तीर में, मझधार में
इस दुनिया के व्यापार में
उदासी में या त्यौहार में
पतझड में या कि बहार में
इस दुनिया उस संसार में
जानी पहचानी पुकार में
या अंजानी झंकार में
कुछ पाने की दरकार में
या यूँ ही फिर बेकार में
हो सकता है मैं याद आऊँ
हो सकता है मैं याद आऊँ

तब याद मुझे तुम मत करना
जो कर रही हो करती रहना
और भूल मुझे भी मत जाना
जो कर रही हो करती रहना


क्योंकि -
खुद को ना भूले है कोई
ना याद करे खुद की कोई
बस इतनी ही समझ में मेरी है
एक होने की शर्त ये पहली है

Saturday, March 31, 2007

गु़लाम अली खाँ

कुछ दिनों पहिले IIT के LAN पे गु़लाम अली खाँ साहब की ग़ज़लें मिल गईं। उनकी आवाज़ की कश़िश से तो हर कोई वाकिफ़ है ही। "हंगामा है क्यों बरपा" और "आवारगी" तो पहले ही सुनी हुईं थीं, कुछ ऐसी ग़ज़लें सुनी जो पहले नहीं सुनी थी। दो ऐसी ही ग़ज़लें लिख रहा हूँ जो शायद आपने भी ना सुनीं हो। यदि इन ग़ज़लों के शायर पता हों तो जरुर बताइये।

१-
हमको किसके ग़म ने मारा ये कहानी फिर सही
किसने तोङा दिल हमारा ये कहानी फिर सही

दिल के लुटने का सब़ब पूछो न सबके सामने
नाम आएगा तुम्हारा ये कहानी फिर सही

नफ़रतों के तीर खाकर दोस्तों के शहर में
हमने किस किस को पुकारा ये कहानी फिर सही

क्या बताएँ प्यार की ब़ाज़ी वफ़ा की राह में
कौन जीता कौन हारा ये कहानी फिर सही


२-
हम तेरे शहर में आए हैं मुसाफिर की तरह
सिर्फ इक बार मुलाकात का मौका दे दे

मेरी मंज़िल है कहाँ मेरा ठिकाना है कहाँ
सुबह तक तुझसे बिछङकर मुझे जाना है कहाँ
सोचने के लिए एक रात का मौका दे दे

अपनी आँखों में छुपा रक्खे हैं जुगनू मैंने
अपनी पलकों पे सजा रक्खे हैं आंसू मैंने
मेरी आँखों को भी बरसात का मौका दे दे

आज की रात मेरा दर्द-ए-मुहब्बत सुन ले
कंपकंपाते हुए ओठों की शिकायत सुन ले
आज इज़हारे-ए-ख़यालात का मौका दे दे

भूलना था तो ये इकरार किया ही क्यूँ था
बेवफ़ा तूने मुझे प्यार किया ही क्यूँ था
सिर्फ दो चार सवालात का मौका दे दे

Monday, January 15, 2007

एक गज़ल

मंज़िल है सामने मगर कम फ़ासला नहीं होता
बढें किस राह आगे यही फैसला नहीं होता

मक़सद नहीं सफर का, कुछ हमसफर तो हैं
करते क्या अकेले अगर काफ़िला नहीं होता

बुलंदियों पे इतनी किस्मत ले आई है हमें
अब और ऊंचा उठने का हौसला नहीं होता

मालिक तेरे जहां में कोई तुझ जैसा क्यों नहीं
सबके सिया़ह दामन कोई उजला नहीं होता

मुख़्तलिफ हैं कायदे इस राह-ए-इश्क के
सबको जो हों पता तो कोई दिलजला नही होता
(मुख़्तलिफ=अलग, जुदा, different)